Memoirs and poetry

Author: 
Vivek Shrivastava

Vivek Shrivastava was born and brought up in Jaipur. He is a Science graduate but chose to do his masters in Economics. He has a Diploma in Functional Urdu from the National Council for Promotion of Urdu Language (NCPUL). At present he's in the third year of his law degree.

Vivek joined the Central Board of Excise & Customs and is presently posted as Superintendent GST. His expertise lies in enforcement of laws relating to money laundering and foreign exchange. He is a visiting faculty for Prevention of Money Laundering Act (PMLA) and Foreign Exchange Management Act (FEMA) at the Rajasthan Police Academy and the Central Detective Training Institute, Jaipur.

Vivek is a prolific writer of poems and stories, many of which have already been published in various journals. He’s associated with several poetic forums. He presented his story ‘Tyakta’ at World Hindi Secretariat at Mauritius which won the third prize of $100 and numerous other felicitations.

Vivek's flair for writing and speaking is well noted and he often anchors high-end functions. He currently resides in Jaipur with his parents, his wife, Rashi, and children, Rudransh and Shivansh.

Editor's Note: We are privileged to publish a medley of Vivek's here: a memoir of his aunt and a poem, both in Hindi.

  1. बूआ जी (संस्मरण)
  2. तुम्हारे प्रतीक

बूआ जी (संस्मरण)

ध्यान आता है बचपन में जिस मकान में रहते थे, उस मकान में छत पर पतंग उड़ाते में उसी मंज़िल पर रहने वाली बूआ जी (पहले आंटी कहने की कल्चर नहीं थी, तब आंटी केवल उन्हें कहा जाता था, जिनके बाल कटे हुए होते थे ) से जब कभी पानी माँगते थे तो वो ग्लास भर कर अलग रख देती थीं, हाथ में नहीं देती थीं, मुझे फ़ील होता था, लगता था वो छूआछूत क्यों करती हैं ? जबकि स्कूल में हमें छूआछूत करने को मना किया जाता है ।

कहते थे कि नहाने के बाद ही वो रसोई में घुसती थीं और दुबारा कभी बाथरूम जाने के बाद कपड़े बदलती थीं। क्या मज़ाल कि कोई बाहर से जूते- चप्पल कमरे में ले जाये ! लकड़ी की चट्टियों की आवाज़ से बूआ जी की लोकेशन विदित होती रहती थी।फूफाजी भी उनकी भावनाओं की क़द्र करते थे और अनुशासित से दफ़्तर से लौटते ही सीधे ग़ुसलख़ाने में जाते थे।

पूजा-पाठ भी नियमित करती थीं।सारे व्रत उपवास भी। नवरात्रि में अष्टमी को कन्याओं के साथ लांगरे भी जिमाती थीं और उस समय हम बच्चों के पैरों को जल से धोती थीं, जबकि वो मेरी दादी की उम्र की रही होंगी, शायद बच्चों को वो वास्तव में भगवान का रूप मानती थीं । खाना बहुत स्वादिष्ट बनाती थीं, हर चीज़ का भोग पहले ठाकुर जी को लगता था।

उनकी बनाई खीर बहुत स्वादिष्ट होती थी, तब देश में ग़रीबी का आलम था। चीनी राशन पर मिलती थी, दूध भी हर वक़्त नहीं मिलता था इसलिए तब के बच्चों को मिठाई इतनी सुलभ नहीं थी, जितनी अब है।कोई भी दावत जिसमें खीर हो, सुन कर ही बच्चों की लार टपकने लगती थी। तब मनोकामना पूर्ति के लिए शुक्रवार का संतोषी माता का व्रत काफ़ी किया जाता था, अब भी शायद किया जाता हो । उसके उद्यापन में 8 लड़कों को जिमाया जाता था । न जाने कितनी ही मनोकामनायेंबूआ जी की पूरी हुईं और मैंने कितने ही उद्यापनों में जीमा और उस दिन खटाई न खाने के बूआ जी के निर्देशों का अक्षरशः पालन किया, जबकि तब इमली, कटार बच्चों की बड़ी प्रिय खाद्य वस्तु हुआ करती थी पर खटाई न खाने के पीछे मन में बूआ जी का ख़ौफ़ संतोषी माता के प्रति श्रद्धा की अपेक्षा कहीं बड़ा था।

गैस सिलेंडर को बूआ जी धो कर ही रसोई में रखती थीं और हमेशा रेग्यूलेटर भी हाथ धो कर छूती थीं।मुझे लगता था कि ये कितना छूआछूत करती हैं ! उनसे पानी माँगने में भी बहुत संकोच होता था।

कभी लगता था ये बच्चों को गंदा समझती हैं, पर एक दिन मैं और मेरा भाई छत पर पतंग उड़ा रहे थे। मैंने चरखी पकड़ रखी थी । मेरे भाई को बंदरों ने घेर लिया, मैं चरखी फेंक मदद के लिए बूआ जी के पास भागा। बूआ जी खाना खा रही थीं।वो खाना छोड़, बाँस ले कर द्रुत गति से दौड़ीं और मेरे भाई को बंदरों के बीच से खींच लाईं, बूआ जी का वो दैवीयरूप तो कभी नहीं भूलता, आज के समय में शायद ही कोई उदाहरण ऐसा मिले।मेरे घर बड़ा कोई उस समय नहीं था। बूआ जी की बेटी भाई को गोद में उठा कर डॉक्टर के पास भागीं ।

वो अक़सर कहा करती थीं कि उन्हें कभी बुख़ार नहीं आया, न उन्होंने कभी कोई दवाई ली।उन्हें कभी किसी ने सूर्योदय के बाद सोते नहीं देखा, वो सूर्योदय से पूर्व उठा करती थीं और नित्यकर्म तथा पूजा-पाठ सूर्योदय से पूर्व सम्पन्न कर लेती थीं। रात को भी जल्दी सोती थीं और सुबह उठ कर पूरे घर में झाड़ू लगाती थीं, कभी कोई दर्द उन्हें नहीं सताता था।

पहले डिलीवरी भी घर में ही होती थीं, वो भी ख़ूब सारी । बूआ जी के भी 5-6 बच्चे थे, जिनमें कुछ का विवाह भी हो चुका था। बच्चों के बच्चे भी थे। उनके अनुशासन से छोटे-बड़े सब भयभीत रहते थे, सब समझते थे कि बूआ जी को सफ़ाई का मीनिया है, पर तब बड़ों से ज़बान दराज़ी, बहुत बड़ा गुनाह समझा जाता था, मन ही मन में भले ही थोड़ा भुनभुना लें।

बहुत अधिक पढ़ी हुई तो नहीं थीं, पर बूआ जी अख़बार पूरा पढ़ती थीं, हर ख़बर से वाक़िफ़ रहती थीं।

अचूक देसी नुस्ख़े बेशुमार जानती थीं।मुझे बचपन में जब खाँसी होती तो बूआ जी साबित नमक की कंकड़ी मुझे चूसने को देती थीं। काले कुत्ते को शनिवार को दूध पिलाने का मशविरा भी मेरी माँ को देती थीं। कभी कुछ दिन हम बच्चे छत पर न जाएं तो समझ जाती थीं कि कोई बच्चा बीमार हो गया है, तो देखने आतीं,कोईदेसी नुस्ख़ा बतातीं और कोई फल पकड़ा जातीं ।

तब बच्चे पूरे मौहल्ले के बच्चे हुआ करते थे, आस-पड़ोस के किसी को भी उन्हें पढ़ाई से उठा कर हलवाई से दही ले कर आने का आदेश देने का पूरा अधिकार था। डाँट भी कोई भी देता था और नुस्ख़े भी दे देता था। नज़र भी उतार देता था, जबकि नज़र लगती भी होगी तो किसी आस-पास वाले की ही, टोटकों से भी सटीक इलाज किया जाता था।

वो मकान में रहने वाले अन्य परिवारों की महिलाओं में सबसे बड़ी महिला थीं । करवा चौथ की पूजा सामूहिक रूप से उन्हीं के नेतृत्व में हँसीठिठोली के साथ हुआ करती थी और हम बच्चे चंद्रमा के उदय होने की प्रतीक्षा में आसमान पर टकटकी लगाए रखते थे और दौड़ कर उसके उगने की ख़बर देते थे। शरद पूर्णिमा पर वो हमारे साथ चाँदनी में सूई पिरोने का प्रयास करती थीं। होली पर सब बच्चों को अपने हाथ से बनाई एक-एक गुजिया खाने को देती थीं।

ये चीज़ें आपस में लोगों को जोड़े भी रखती थीं।इसीलिए शायद रिश्ते नातों से ही संबोधन होता था ।बूआ जी के बच्चे मेरे माता-पिता को मामाजी-मामीजी कहते थे ।मैं वाचाल बहुत था| मैंने एक बार मैंने उन्हें मेरे भाई बहनों से बात करते में रेफ़रेंस के लिये ‘ऊपर वाली’ कह दिया था, उन्होंने ये सुन लिया। मुझे पता नहीं था कि वो सुन रही हैं । बस तूफ़ान आ गया।उन्होंनेमुझे बहुत लताड़ा |

मैंने कवर करने की बहुत कोशिश की कि मैंने ‘ऊपर वाली बूआजी’ कहा था, ‘ऊपरवाली’ नहीं , पर वो नहीं मानीं | सात साल के बच्चे की जान पे बन आयी । शाम को पिताजी के दफ़्तर से लौटते ही मेरी पेशी हुई |तब पिता का भय होता भी बहुत था , साप्ताहिक तौर पर लड़कों की पिता द्वारा पिटाई अति सामान्य घटना और स्वस्थ परंपरा थी | इसे उन्हें बिगड़ ने से बचाने का उपाय माना जाता था | लड़कियों को इससे छूट थी , उन्हें लक्ष्मी का रूप माना जाता था | मेरी पिटाई बस होते- होते ही बची | बूआजी ने ही पिताजी का हाथ रोक दिया पर बूआजी से मुझे कान पकड़ कर और उनके पैर छूकर , माफ़ी माँगनी पड़ी, क्योंकि मैंने उन्हें ‘ऊपर वाली’ कहने का घोर अक्षम्य अपराध कर दिया था । बूआ जी के व्यवहार के कारण मैं उनसे बहुत डरता था इसलिए जब वो मकान पिताजी ने बदला तो मैं बहुत ख़ुश हुआ था , हालांकि मकान बदलने के बाद भी आना-जाना बना रहा, वो नए मकान में भी कई बार आईं |

मैंउन्हें वहमी, पुरातनपंथी और छुआछूत करने वाला समझता था, पर शायद ये उनका स्वच्छता को जीवन में अपनाने का और सोशल डिस्टेंसिग का पालन करने का ही तरीक़ा था, जिससे हमारे पूर्वज अपने को स्वस्थ रखते थे, पर मेरा अपरिपक्व मन उन्हें नहीं समझता था और अभी तक भी मैंने कभी उस तरीक़े को नहीं अपनाया।

आज कोरोना ने इस बात को सिद्ध कर दिया है कि बूआ जी, न वहमी थीं, न पुरातनपंथी, न वो उनकी छूआछूत थी, वो समय से बहुत आगे थीं, उन्होंने सालों पहले सफ़ाई के महत्व को समझ कर शुचिता को जीवन में अपनाया हुआ था और नियमित तथा आत्मनिर्भर जीवनचर्या को भी, शायद इसीलिये उन्हें कभी बुख़ार नहीं आया। वास्तव में वो हमारी संस्कृति की वाहक थीं और दूसरों तथा अपने परिवार की नापसंद की परवाह किये बग़ैर जो कुछ सबके लिए अच्छा था, वही किया करती थीं।

बूआ जी को ब्रह्मलीन हुए एक अरसा गुज़र गया । सुना था आख़री समय तक वो चलती फिरती रहीं और अपना काम ख़ुद करती रहीं। आज कोरोना महामारी के काल में मैं, या कहूँ कि सकल विश्व ही वो कर रहा है, जो बूआ जी दशकों पहले किया करती थीं।

आज बूआ जी को ग़लत समझने के कारण उनसे क्षमा माँगने और उन्हें नमन करने की इच्छा हुई और मैं मेरे टीन एजर्स बच्चों को बूआ जी के बारे में बतलाने लगा ।

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उक्त रचना मौलिक है ।
विवेक श्रीवास्तव
जयपुर


तुम्हारे प्रतीक

तुमने कहा स्वीकार करो
और करो प्रदर्शित स्वीकारोक्ति

मैंने माना हर बंधन,
स्वेच्छा से श्रद्धा से

बना लिया उसको आभूषण
सजा लिया ख़ुद को
सभी प्रतीकों से।

तुम्हारे होने का
सबूत देती है,

मेरी भरी हुई माँग,
माथे की बिंदी।

गले का मंगलसूत्र
नहीं अखरता मुझे

बल्कि

लगता है प्राणों से प्रिय ये ।

हाथों की चूड़ियों की खनखनाहट से
नहीं आती झेंप
कार्यस्थलपरमुझे

न ही समझती हूँ
पुरातन स्वयं को इससे,

बल्कि
सजाती हूँ अपनी कलाई को
तरह-तरहकीचूड़ियोंसे |

लगाती हूँ मेहँदी, महावर,
तुम्हारे प्रतीक के रूप में।

पहनती हूँ बिछुए,
नहीं गड़ते मुझे
येउँगलियों में ।

तुम्हारे होने के सभी प्रतीक,
हैंआभूषण मेरे,
नहीं चाहती करना
इन्हें अलग कभी अपने से।

नहीं स्वीकार्य मुझे
अपना ऐसा अस्तित्व,
जो हो बिना इनके।

प्रतीत तो होते हैं ये
प्रतीकबाँधते से मुझे

किंतु,

इनकी पूर्ति का दायित्य
है अवश्य तुम पर ही

इस तरह,

मुझसे अधिक उत्तरदायित्व
हैं ये तुम परडालते ।

जानती हूँ मैं
कि अच्छा लगता है तुम्हें,
होते हो हर्षित तुम
देख कर सजा मुझे
इन प्रतीकों से

करते हो ख़र्च
अपने सीमित साधनों से
बची अधिशेष राशि,
मेरे गहनों पर,
सुर्ख़ी बिंदी पर।

लगता है मुझे भी
अच्छा सजना इनसे।

माँगती हूँ दुआ
सुहाग की प्रति वर्ष,
सजा कर स्वयं को
कोसों दूर बसे आकाश के
चाँद से,

मेरी लाख पढ़ाई के बावजूद,
नहीं होता करवा चौथ का चंद्रमा,
मात्र एक उपग्रह मेरे लिये ।

वस्तुतः
कोई विरोध नहीं है
तुम्हारी और मेरी भावनाओं में।

बँधे रहना चाहते हैं हम दोनों,
लता और वृक्ष की तरह

इसलिये
तुम्हारे मेरा होने का
नहीं चाहिये
मुझेकोई प्रतीक,
कोई प्रमाण तुमसे,

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उक्त रचना मौलिक है ।
विवेक श्रीवास्तव
जयपुर

Comments

बहुत उम्दा संस्मरण । उस समय ऐसी कई बुआ मौसी चाची अम्मा आदि हुआ करती थी जो सफाई और शुचिता का कड़ाई से ना केवल पालन करती थी बल्कि आसपास किसी की अवहेलना भी नहीं करने देती थी ।

धन्यवाद जैन साहब।
वास्तव में लिखा वही जाता है जो सत्य होता है। पात्र हमारे आसपास ही होते हैं।

अति सुंदर रचना। समसामयिक।

धन्यवाद अजय जी

Excellent creation

धन्यवाद

वाह! अदभुत रचना है।
The flow of thoughts is truly mesmerizing..!

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