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मेरी कवितायेँ मेरी पहचान
Jogendra Singh finished his Masters in 1968 and followed it up with a Law Degree in 1970. He joined the Indian Revenue Service in 1971. He retired in 2009 as Chairman Settlement Commission. On superannuation he started writing poems in Hindi and short stories in English.
हिंदी की कुछ कवितायेँ :--
- नन्ही बदली
- गर्मी की दोपहरी
- बैल और किसान
- तितली और तूफान
- कुछ यक्षप्रश्न, जरा हट के
- मंदिर
नन्ही बदली
गर्मी चरम पर है। जीव जन्तु सभी बेहाल हैं। अचानक कुछ होता है सब कुछ बदल जाता है। कैसे ? यह कविता पढ़िये और जान जाइयेः
नभ में सूरज की छटा खिली थी।
कडक धूप थी,गर्म लू चली थी।
दूर से उडती नन्ही बदली आयी।
रुक सूरज नीचे चादर फैलाई।
अपमानित सूरज छेदों से झाके ।
बदली ने भी छेदों में मारे टाकें।
फिर सुरसा सम स्व बदन फैलाई।
प्रसन्न हुए प्राणी, ठड़ी छाया छाई।
कड़की बिजली फिर चूं पड़ी बूदें।
तरु भीगे, ताल भरे, व मेढक कूदें।
नाचे मोर विभोर, ओ फिज़ा बदली।
क्या कुछ कर देती नन्हीं सी बदली।
- जोगेन्द्र सिँह
गर्मी की दोपहरी
गांव में गर्मी की दोपहरी में सभी परेशान हो जाते हैं। जो माहोल रहता है, उस पर मन मे उभरी निम्नलिखित पंक्तिया प्रस्तुत हैः
काटे न कटे यह दुपैहरी।
कमर में कचोटे हैं घमोरी।
हवा बन्द, हिले न पत्ता।
बहै पसीना, तर हैं लत्ता।
धूप जलाये, न कही बादल।
सूखे होट प्यास से पागल।
जिसे मिल जाये ठंडा पानी।
वही है राजा, वही है रानी।
- जोगेन्द्र सिंह
बैल और किसान
ट्रेक्टर आने से गांव में बैल लुप्त होते जा रहे हैं। पहले किसान के यहां बैल पुत्र समान होते थे। इसी पृष्टभूमि में यह कविता है।
अजनवी थे, दोनो मेले में मिले थे।
किसान ने खरीदे, साथ 2 चले थे।
जिसने देखा, कहा, बैल भले थे।
किसानी ने द्वार पर स्वागत किया।
मूहँ पर हाथ फेर थप थपा दिया।
हरा चारा दिया, पानी पिला दिया।
बैलों की आखें डब डबा गयीं।
अपनी अपनी माँ याद आ गयीं।
सोचा, विवशता माँ को गवां गयी।
एक दूसरे को देख फिर यह कहा।
जो छूटा सो छूटा, अब नही रहा।
जो है थामो, जैसे किसान पगहा।
किसान किसानी ही तात मात हैं।
इससे आगे सब अदृश्य अज्ञात है।
उनकी सेवा में खुशी सही बात है।
सोच यह, दोनों सेवा में लग गये।
गाडी खीची और हल मे जुत गये।
दिन बीते, साल बीते, वृध हो गये।
अंत समय आया, दोनो चले गये।
किसान किसानी तडपते रह गये।
निसंतान थे, अब अकेले रह गये।
जीवन यात्रा है, आना है जाना है।
बैलों सम रिश्ते जोड निभाना है।
दिवंगतो को रोकर बढ़ जाना है।
सोच यह, वृध किसान चल दिया।
मेले मे नये बैलों का सौदा किया।
सऊंमग घर की ओर बढ़ लिया।
किसानी ने उनका स्वागत किया।
बैलों को पुचकारा थप थपा दिया।
हरा चारा दिया, पानी पिला दिया।
- जोगेन्द्र सिंह
तितली और तूफान
अचानक तूफान आया। पेड उखडे, घर ढहे, अनेक लोग मर गये। कुछ दिन पहले मौसम विभाग की बडी स्पष्ट भविष्यवाणी थी । दो दिन के लिये स्कूल भी बन्द कर दिये गये थे। पर कुछ न हुआ। पर कल के लिये कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं थी। पर अचानक बवंडर आ गया। जान माल की भारी हानि हुई। इसी से यह कविता अंकुरित हुई:
सब कुछ शांत था, हवा बन्द थी, धूप खिली थी, साफ आसमान था ।
सुदूर झाडी में एक पुष्प खिला था, रेत का विस्तार था, रेगिस्तान था।
मीलों भटकी तितली फूल पर लपकी, भूखी थी, करना पराग पान था।
पराग प्रदत्त आनंद से पंख चले ऐसे, हुवा लघुवायुचक्र का निर्माण था।
लुघुवायुचक्र रुका नहीं, वृहद हुआ, बिना रुके बढा और फैलता गया।
गति ने धूल खींची, धूल ने शरीर दिया, जो उठा और चक्रवात बन गया।
विस्तार होता गया, गति व शक्ति बढ़ी, फैल फैल कर दैत्याकार हो गया।
दैत्य हिंसक हो गया, वृक्ष उखड गये, जीव मरे, सर्वत्र हाहाकार मच गया।
फिर कुछ ऐसा घटा, घटायें आ पहुंची, बिजली भी दहाडी और बूंदें गिरीं।
वायु का प्रयास था कि उड जायें मेंघ, बादल अड गये, ताल नदियां भरीं।
बाढ आयी, पुल टूटे, पशु मरे, घर ढ़हे, मानव हारे और विपदा भारी परी।
जब तूफान हुआ मंदिम, शासन दौडा, राहत दलों ने यहां वहाँ मदद करी।
फिर छिडी बहस पृथ्वी और गगन में: वायुदेव ने कहा,'समग्र श्रेय मेरा है।
मेने बनाया वायुचक्र, मैंने बनाया वेग, आंधी चलाई, चक्रवात मैंने पसेरा है'I
इंद्र बोला कि बिन जल हवा अधूरी थी, केवल वर्षा ने डुबोया हरेक डेरा है।
असली विनाशलीला तो मैंने की थी, वायु ने तो सामान यहां वहां बखेरा है।
पृथ्वी पर मौसम विभाग अचम्भित था, क्यों न कर पाया था भविष्यवाणी।
कुछ ने कहा,'वह अक्षम, अयोग्य है', अथवा 'राम की माया किसने जानी'।
तूफान प्रसूता थी नन्हीं सी तितली, किसी ने कही, न सुनी उसकी कहानी।
कहते संत, नींव का पत्थर कोई न जाने, भवन दमक की करें सभी बखानी।
- जोगेन्द्र सिंह
कुछ यक्षप्रश्न, जरा हट के
मांगा था ना जीवन मैने, अनचाहे यह जीवन मिला।
मैंने चाही पूर्ण स्वतंत्रता, पर बंधन हर कदम मिला।
क्यों न मैं नदजल सम उचश्रंखल बन शिला चीर बहु।
क्यों न मैं वायु सम बन आंधी चलु या मंद समीर बहु।
क्यों न मै पावक सम ज्वाला बन घर और प्राचीर दहु।
मैं चाहूं धन-एश्वर्यार्जन, संत कहें, यह गलत विचार है।
मै बनु रुचिर परतन लोलुप, वे बोलें, यह व्याभिचार है।
मैं चाहूं यश-कीर्ति पताका, वे कहें, मानसिक विकार है।
तेरी ही निर्मित ये कामनाएं, तूने उपलब्ध किये प्रलोभन।
बन गया स्वंय सर्वशक्तिमान, औरों को बांध दिये बंधन।
क्यों न बनाया ऐसा खेला, सब जीतें, हसें, न होय रुदन।
तू स्वंय छिप बैठा अणुओं में, कैसे प्रश्नो के उत्तर पाऊ।
'तू मुझ मे है और मै तुझ मे हूं' का अर्थ मैं यही लगाऊ।
उत्तर तुझसे ही उपजे हैं, मैं माध्यम मात्र बन उन्हें सुनाऊं।
उत्तर हैं: नियम से ही चले सृष्टि, बिना नियम हो बंटाधार।
नक्षत्र निहारिकाओं को देखों, आर्कषण सृष्टि का आधार।
आर्कषण की मर्यादा है, वे ना ही टकरायें, न रुके रफ्तार।
इसी तरह आवश्यक है, हर व्यवहार हो नियम नियन्त्रित।
असीम स्वतंत्रता जनै अत्याचार, अतएव है वह वर्जित।
अमर्यादित कामना जनै कदाचार, इसलिए है अवांछित।
बिना छल कपट, खूब करो तुम धनार्जन नियमानुसार।
त्यागो अभद्र लोलुपता, और यथासंभव करो परोपकार।
मर्यादाओं का सम्मान करों, अनचाहे मिलेगा यश अपार।
यही सन्मार्ग है, यही सही कर्म है, सभी धर्मों का ये मर्म है।
स्वीकार है यही पूजा प्रभु को, सत्यों में यही सत्य परम है।
- जोगेन्द्र सिंहं
मंदिर
वह अकेला था, एकांत था, मंदिर निपट सुनसान था।
क्रोधित था, हताश था, उदिगन्न था, और परेशान था।
प्राण त्यागने का निश्चय था, पर कुछ जिज्ञासा शेष थी।
प्रश्न मन में थे कुछ, उत्तर मिलें, यही इच्छा विशेष थी।
बोला, 'भगवन, मैं रोज हाथ जोड शीश झुकाता था।
प्रार्थना थी छोटी सी एक, मांगता था, पुष्प चढाता था।
पूरी कर सकता था तू , पर न की, दूसरों के काम बनाये।
क्या वे मुझ से जयादा उत्तम थे, जो मुझे छोड अपनाये?'
यह कहते कहते चक्षु बन्द हुऐ, पर मूर्ति ओझल न हुई।
आश्चर्य!, मूर्ति लगी बोलने, और सांस लेती सजीव हुई।
कहने लगी,' हंसी आती है, पढ लिख कर भी नादान हो।
मानव तराशा पत्थर हूं मै, जिसे तुम समझते भगवान हो।'
'तो यह मन्दिर मूर्ति क्यों, क्यों ईश को प्रिय पूजा मन्नत?'
'नही', मूर्ति बोली, 'ये हैं मानव कृत, ना हैं ईश की चाहत।'
वह बोला, 'तो फिर क्यों बनायें मंदिर, क्यों झुकाये शीश?'
मूर्ति ने कहा,' इच्छा है, चाहो मांगों या न मांगों आशीष।'
'न समझ पाया हूँ', बोला वो, 'समझा सको तो समझाओ।'
'नही असंभव इसे समझना, बस थोडा सा ध्यान लगाओ।'
यह कह कर मूर्ति हूई प्रारम्भ, निकले शब्द, उपजा ज्ञान।
'स्वनिर्मित है यह ब्रह्मांड जिसके अणु अणु मे है भगवान।
जड चेतन स्थूल सूक्ष्म वायु अग्नि व्योम मे है वह निहित।
सूरज से निर्गत रश्मियां सम, सब कुछ है उससे उत्पत्तित।
जड चेतन के अणु अणु मे होता स्पंदन उसका प्रमाण है I
तुम भी उसके अंश हो, अंतर इतना, वह सम्पूर्ण, महान है I
सकल सृष्टि नियमो से चलती, वह भी उनसे बंधा हुआ है।
कर्म से सब कुछ तुमको मिलेगा, तू भी कर्म से बंधा हुआ है I
अर्जित कर्म से ज्यादा तू चाहे, वह दे न पाये, है वह विवश I
वह तटस्थ है, निष्पक्ष है, चाहे याचक का हो यश या अपयश।'
सुन कर वह बोला, 'ऐसा है तो मंदिर का क्या प्रयोजन है ?'
मूर्ति मुस्कराई और बोली, 'मंदिर भवन नही एक आयोजन है I
आयोजन है ध्यान का, मनन का, पश्चाताप व आत्मशोधन का।
आत्मशांति का, आध्यात्मिक विकास का, सुकर्मों के रोपण का।
लाभ उठा इस आत्मशोधन का, तज निराशा, अपना कर्म कर I
जो न मिला उसे भूल जा, जीवन अमूल्य है, न इसका अंत कर।'
आंखे खुली तो उसने पाया, मूर्ति पूर्ववत निशब्द पाषाण थी।
'अहं ब्रह्मास्मि' वह हुंकारा, दिशा व लक्ष्य स्पष्ट, राह आसान थी।
-जोगेन्ढ्र सिंहँ
Comments
नन्ही बदली
बचपन याद आया
बहुत मज़ा आया
नन्हीं बदली
धन्यवाद। कविता सार्थक हुई।
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