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इमरजेंसी
सुमंत पंड्या वर्ष 1970 में राजनीतशास्त्र विभाग , राजस्थान विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद , लगभग चार दशक बनस्थली विद्यापीठ में राजनीतिशास्त्र विषय के अध्यापन के बाद अपने आवास गुलमोहर मे जीवन संगिनी मंजु पंड्या के साथ जयपुर में रहते हैं. सभी नए पुराने दोस्तों और अपनी असंख्य छात्राओं से भी संपर्क बनाए हुए हैं. फेसबुक और ब्लॉग की दुनियां इसमें मददगार होगी यह आशा रखते हैं .
इमर्जेंस की बातें फिर याद आने लगी पिछले महीने. क्यों याद आने लगी उसे तो जाने दीजिए , आप बेहतर जानते हैं मुझे आज के हालात के बारे में अभी हाल कुछ नहीं कहना. मैं तो तब की थोड़ी सी बात याद आ गई और लगा कि इसे दर्ज भी कर दिया जाए तो कोई हर्ज नहीं , वही करने लगा हूं.
तब जब उन्नीस सौ पिचहत्तर - सतत्तर में इमरजेंसी का दौर था अखबार और रेडियो और बहुत कीजिए तो टेलीग्राम टेलीफोन ये ही तो संचार के साधन थे , इनका भी फैलाव आज जैसा कहां था. फिर भी बात फैलती तो थी.
एक बात मैं अवश्य रेखांकित करूंगा उस जमाने की कि लोग आकाशवाणी के समाचारों की बनिस्पत बी बी सी के समाचारों और रेडियो प्रसारणों पर ज्यादा भरोसा करने लगे थे. ये कोई अच्छी बात तो नहीं कही जा सकती लेकिन हालात ही कुछ ऐसे थे और उन्हें हमारे ही शासन ने उत्पन्न किया था.
एक निजी अनुभव :
एक दिन बनस्थली में आई बी के एक अधिकारी मेरे घर आए , अजब इत्तफाक था कि वो मेरे कालेज के जमाने के दोस्त निकले. दोस्तों के बीच खुलकर जैसी दुनियां जहान की बातें होती हैं वो हो गईं.
इस दोस्त आई बी अधिकारी के पास ऐसी राज मुद्रिका थी नए जमाने की कि वो कहीं भी आ जा सकता था. मुझे तब ये अच्छी तरह पता चला था कि इन ख़ुफ़िया एजेंसियों के पास आगे से आगे कितनी सूचनाएं इकठ्ठा होती हैं.
जाने अनजाने वो दोस्त मुझसे भी ऐसी सूचनाएं ले ही गया जो प्राप्त करना उसका पार्ट ऑफ जॉब था.
इस आई बी अधिकारी की आवक बाद में भी परिसर में देखी गई. मेरे कुछ एक नजदीकी दोस्तों की राय थी कि दोस्त था तो क्या हुआ आया तो आई बी की तरफ से था मुझे उससे दूरी बनाकर रखनी चाहिए थी. मैं ऐसा कभी कर नहीं पाया. मैंने राजनीतिशास्त्र पढ़ा और पढ़ाया जरूर था पर ये पैंतरे बाजी मुझे न तब आती थी न अब आती है.
एक भले दोस्त के रूप में उसने एक राय जरूर दी थी जो बात मुझे आज भी याद आती है :
" सुमन्त , मेरी मानो तो किसी पार्टी की मेंबरशिप भूल कर भी मत लेना वरना अपना ये सोचने का तरीका गंवा बैठोगे... सब एक जैसे हैं."
हम लोग कोई सरकारी नौकर नहीं थे अतः किसी राजनैतिक दल के प्रति प्रतिबद्धता निषिद्ध तो नहीं थी , पर उस दिशा में कोई महत्वाकांक्षा मैंने पाली भी नहीं थी.
ऐसे ही याद आई बाते आपसे साझा करते हुए.
Comments
सही लिखा आपने उस समय के समाचार माध्यमों के बारे में। मित्र ने सही सलाह दी।
बहुत सही लिखा है । आपातकाल के दिनों की याद दिला दी ।
Please write more about the Emergency
प्रोत्साहन के लिए आभार सुबोध [quote=Subodh Mathur]Please write more about the Emergency[/quote]
8fe3yv
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