शिक्षण के माध्यम से अपने जीवन यात्रा की याद

Author: 
कुसुम भटनागर

श्रीमती कुसुम भटनागर का जनम १९३६ में हुआ । सोफिया कॉलेज , अजमेर से शुरूआत करते हुए वे राजस्थान के विभिन्न पाठशालाओं में शिक्षिका रह चुकी हैं । वर्तमान में श्रीमती भटनागर अजमेर में एक शांत सेवानिवृत्त जीवन बिता रहीं हैं जहाँ वे अपने द्वारा बनाए गए शिव मंदिर की देख रेख में सक्रिय रूप से शामिल हैं ।

आज २८ अगस्त २०१६ की शाम है । अचानक फ़ोन की घंटी बजी । फ़ोन उठाया तो आवाज़ जानीपहचानी सी लगी । जयपुर से भॉंजी तिलक भटनागर की आवाज़ ने आज से क़रीब बावन साल पीछेकी सैर करने का आदेश दिया । कहा ' मौसी, अपने शिक्षिका जीवन के खट्टे मीठे अनुभव लिखकर देंगी? ' बस क्या था ! इतने लम्बे अरसे यानी तीस वर्षों की लम्बी डगर के खट्टे मीठे अनुभव मस्तिष्क में मँडराने लगे ।

श्रीमती कुसुम भटनागर सोफिया कॉलेज , अजमेर में शिक्षिका रह चुकी हैं ।

सर्व प्रथम सोचा तो स्वयं पर आश्चर्य हुआ कि किन परिस्थितियों में , कैसे मैं इस क्षेत्र में प्रवेश कर गई ! सर्व प्रथम बेगम आलीशाह की मदद से सन १९६२ में अजमेर के सोफिया स्कूल में शिक्षिका के रूप में कार्य भार सँभाला । अपने मृदुल स्वभाव , पिता के संस्कार के अनुकूल ना केवल अधिकारी बल्कि विद्यार्थीयों के हृदय में जगह बना ली । लेकिन विदेशी मातहतों के बीच कार्य करने में कुछ रुचि दिखाई नहीं दी । वहाँ केवल अध्यापन पर ही वाहवाही मिली । जीवन की अन्य कलाओं परकार्य करने का अवसर नहीं मिलने से नीरसता का अनुभव हुआ । ईसी कारण अनुभवी लोगों कीमदद से सरकारी स्कूल की तलाश करने लगी ।

अगस्त १९६४ में मेरे वनवास का सफ़र शुरू हुआ । शृी राम ने १४ वर्ष ही वनवास सहा परन्तु मैंने अठारह वर्ष अपने परिवार से दूर रहकर (कोटा, राजस्थान) में अपना एकाकी जीवन व्यतीत किया ।

आश्चर्य तब हुआ जब वहॉ से मेरा तबादला पुष्कर किया गया । पुष्कर की पावन भूमि पर साथियों नेजब आश्चर्य किया कि इतना समय आपने कैसे निकाल दिया तो , बड़ा गर्व अनुभव हुआ और अपना अनुभव उनके साथ साझा किया ।

कोटा में मैंने अनुभव किया कि मनुष्य की सोच यदि अच्छी हो तो जीवन में अच्छा ही होता है । अपने परिवार से गृहण पिता का मधुर दुलार , भाईयों का स्नेह , रिश्तों की अहमियत अपने पराए के भेद नेमेरा जीवन दृढ़ संकल्प के साथ साल दर साल आगे बढ़ाया । विद्यालय एक परिवार होता है । यहीं मैं अच्छाईयों को गृहण करती रही और बुराइयों से दूर रहती रही । ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैरवाली कहावत जीवन में चरितार्थ की । स्वभाव में मधुरता थी तो सभी ने अपनाया और सराहा । कार्यस्थल पर अपनी प्रतिभा को जागृत करने का भरपूर प्रयास किया । चाहे वह सांस्कृतिक कार्यक्रम हो , अध्यापन-क्षेत्र हो , सभी में अधिकारियों की तारीफ़ पाई । सहयोगी इतने क़रीब हो गए कि कभी अकेलापन महसूस नहीं हुआ । शाला का नाम रोशन करने के साथ कुसुम भटनागर भी हाड़ौती कीमिट्टी में प्रसिद्ध हो गई ।

सन १९८० में फिर प्रमोशन के रूप में झालावाड़ मेरा तबादला कर दिया गया । एक वर्ष SDI केपद पर कार्य का अनुभव मिला । उस क्षेत्र के विभिन्न स्थानों (भवानी मंडी , राम गंज मंडी, आदि) के वातावरण से बहुत अनुभव हुआ । अजमेर निवासी घाट घाट का पानी पीने का आदि हो गया । ईश्वर की आसीम कृपा रही कि तन मन से अपना कर्तव्य निष्ठा पूर्वक निभाया ।

अचानक अजमेर जिले की हाकिम श्रीमती कमला हमारी ओर खिंच गईं और उनके प्रयास ने मुझे वहाँ से विदाई दिलवाई । मैंने पुष्कर की पावन भूमि पर अपना आगे का कार्य सन १९८२ में सँभाला । पाँच वर्ष अजमेर से पुष्कर और पुष्कर से अजमेर की दौड़ धूप में निष्ठा से पूरे पुष्कर में अपनी छाप छोड़ कर अपनापन निभाया । १९८७ में अजमेर के नामी स्कूल में भी अपनी प्रतिभा की परीक्षा की कसौटी पर भी अपने आप को खरा उतारा । प्रकृति ने अपने रूप गरमी , सर्दी , बरसात के रूप में बदले हों पर यह ' कुसुम ' विपरीत परिस्थितियों का सामना कर सदैव खिला रहा । मेरा अनुभव है कि मनुष्य के इरादे बुलंद हों , हौसला हो , तो कोई पत्थर राह की बाधा नहीं बन सकता । शिक्षक तो राह दिखाता है । कुशल राही उस पर चले तो मुक़ाम तक पहुँच सकता है । अपने गुरुओं की प्रेरणा से निम्न उक्ति को चरितार्थ कर उन्हें शत शत नमन ।

" गुरुर ब्रह्मा , ग़ुरूर विष्णु ; ग़ुरूर देवो महेश्वरा ।"

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