खेल और हम
Anil Chandela was born in Ajmer in 1959. He graduated with a B.Sc. in Biology from Government College, Ajmer (GCA) in 1980.
Anil joined Central Excise and Customs in 1983 as Inspector and served at various places including the Indo-Pak Border and CSI Airport, Mumbai. He served in the Directorate General of Central Excise Intelligence (DGCEI), Headquatrters, Delhi for 11 years where he received the Presidential Award for Meritorious Service in 2016. He retired as an Assistant Commissioner, IRS in 2019.
Presently, Anil is staying at Jaipur, enjoying his days with a little angel, his four year old grandson.
खेल और हम
खेलों का महाकुंभ, टोक्यो ऑलंपिक अभी पिछले दिनों ही संपन्न हुआ है। और, जैसा कि बहुत से लोगों का कयास था कि गोल्ड तो "फैंकने" में ही आएगा सो वही हुआ। वैसे भी हम हिन्दुस्तानी फैंकने में शुरू से माहिर रहे हैं और अब की तो बात ही क्या ----- हमारे पास अंतरराष्ट्रीय स्तर के फैंकू हैं।
जीवन में शायद कोई भी खेलों से अछूता नहीं रहता, भांति-भांति के हैं। गुल्ली-डंडा, कबड्डी से लेकर कुश्ती और जुए तक, विभिन्न स्वरूप। और अब तो वर्तमान राजनीति के दौर में भी "खेला हौबे"। हाल ही में हम सबने देखा कैसे बंगाल की शेरनी और गीर के बब्बर के बीच खेला हुआ। खैर, छोडें राजनीति को। हम अपनी ही बात क्यूं ना करें, हम क्या किसी से कम।
तो, जनाब ये विभाग तो (जैसा मैने महसूस किया, होउ) सदा से 'खेला' का अखाड़ा रहा। सारा समय विभाग और असैसी के बीच भी खेला चलता रहता। किसका दांव लग जाए और कर दे खेला।
विभाग में भी एक से बढ़कर एक शतरंजी खिलाड़ी। कौन किसी को लंगड़ी दे दे और हो गया खेला। तो ऐसा ही पहला खेला मैंने देखा-सुना था 1987 में अपनी मुख्यालय तैनाती के दौरान। सुना कि कैसे हमारे एक साथी महोदय निरीक्षक पद पर पदोन्नती पाकर सुकून से वक्त गुजार रहे थे कि हुआ यूं कि एक नए जनाब आए जो अंग्रेजों के खेल के बड़े खिलाड़ी होने के साथ-साथ, अभिमन्यु भी थे। गर्भ से ही दांव पेच सीखे सिखाए। सो, शतरंजी घोड़े की माफिक ऐसी ढैया टंगड़ी लगाई कि वो प्रमोटी साब संभल ही न पाए और वी• के• आई• के हरे-भरे मैदानों से उछल-कर सीधे मुख्यालय की मूल्यांकन शाखा में, 'धड़ाम"। हो गया खेला!!!
ऐसे ही उस दौर के एक और खिलाड़ी जो रंगों के सौदागर भी थे। जी हां, जब भी दौरों पर जाते तो कंधे पर एक झोला जिसमें रंग-बिरंगी पुडियां ढ़ेर सारी। और जैसा अक्सर सुनते हैं कि जिस संगत में आप रहते हैं उसका कुछ तो असर आता ही है। सो कुछ ऐसा ही हुआ कि रंगों के बीच रहते-रहते साहब की तबीयत भी रंगीन हो चली। कुछ ऐसी कि बाद को राजपुताने की पुरानी ब्रिटिशकालीन राजधानी तक आते आते हो गया "खेला"।
ऐसा भी नहीं है। हमारे यहां बहुत प्रतिभावान खिलाड़ी रहे हैं अपने दौर में। ऐसे ही एक थे "शेर" साब जो हरी-हरी घास, सीमेंट-फर्श या कोई सतह हो, के पारंगत खिलाड़ी, "ले दनादन, दे दनादन"।
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'अरे वही अपना जिसे आप सब टेनिस बोलते हैं। वे ठहरे सीधी "रेखा" पर सटीक प्रहार करने के शौकीन। चौंकिए नहीं। अरे साब, वो सर्विस जो सामने कोर्ट की बीच वाली लाईन से दनदनाती निकल जाए, जिसे "ऐस" कहते हैं वही। किसी से उठती नहीं वो, ऐसा मैनें सुना।
खेल खिलाडियों की बात चली है तो हमारे 'निरंजनी' अखाड़े के सबसे स्मार्ट, चिर युवा को कौन नहीं जानता। बड़ी सी बॉल को अपने दोनों हाथों मे थामे ऐसे उछल-उछल कर ऊपर हवा में टंगे बड़े से गोले मे डालने में पारंगत।
एक, हमारे प्रेम का प्रकाश फैलाने वाले ऑल राउंडर। कोई खेल शायद ही छोड़ा हो बिना हाथ आजमाये। सफ़ेद झकाझक कपड़े, हाथ में "धौवणा", पीछे तीन डंडे चाहे वो पहली-दूसरी बॉल पर उखड जाएं। पर वो नहीं मानें।
एक और साथी, स्वच्छ, निर्मल, शुद्ध जिन्हें जवानी के दौर में तो कभी मैदान पर देखा नहीं पर अब सुनते हैं इस साठा जवानी में बाकी के ऊपर वाले खिलाडियों के साथ एक नये खेल में आकंठ डूबे हुए हैं।
नया खेल, जी हाँ। सुना है कि ये सब के सब हाथ में अपनी डंडी लिए दिन भर भटकते रहते हैं और छेद ढूंढते रहते हैं अपनी बॉल डालने के लिए। अरे नहीं भाई आप क्या सोचने लगे??
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'''यकीन ना हो तो खुद जाकर देख लें। रामबाग गोल्फ क्लब के मैदान में।
😊शब्बा खैर और कृपया मेरी भी खैर मनाइये।
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