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आखिरी वार्तालाप
Ritu Agarwal is a central government employee by profession but an artist by passion. She writes poetry and prose to express and reflect on her experiences. She is a self-learner and uses it to create via painting, designing, crafting and sewing.
आखिरी वार्तालाप
उस दिन शायद शाम के 4:00 बज रहे थे फोन की घंटी बजी दूसरी तरफ से एंबुलेंस की आवाज आ रही थी। ऐसा मेरे साथ पहली बार हो रहा था कभी सोचा ही नहीं था ऐसा भी होगा । मुझे बताया जा रहा था मां की तबीयत ठीक नहीं है उन्हें अस्पताल ले जा रहे है।
आनन-फानन में शाम की फ्लाइट से मुंबई पहुंची, सीधा नानावती अस्पताल जहां वो वेंटिलेटर पर आईसीयू में भर्ती थीं और अचेत थीं। रात के लगभग 11:00 बज रहे थे।
दूसरे दिन सुबह नियत समय पर डॉक्टर आए और उन्होंने बताया कि वे कुछ नहीं बता पाएंगे। कब? कैसे? कितने दिन? कुछ नहीं।
खैर, पेशेंट से मिलने का समय निश्चित था, मैं अंदर गई मां को आवाज लगाई "मम्मी, देखो मैं आई हूं ऋतु।" कोई जवाब नहीं आया। पुनः पुनः आवाज लगाई। थोड़ी सी हरकत हुई । होंठ फड़फड़ाए। अगली आवाज पर उन्होंने आंखें खोली, एक नजर भर कर देखा, शायद पहचाना भी। कुछ बोलने की भरकस कोशिश की। पर बमुश्किल होंठ कंपकंपा कर रह गए। बोल नहीं पाने की बेबसी आंखों में उतर आई और आंसू बनकर बह गई। और आंखें पुनः बंद हो गईं। उसके बाद कई बार पुकारा पर शायद वे आवाजें उन तक पहुंच नहीं पाईं।
नर्स ने आकर कहा पेशेंट से मिलने का समय खत्म हो गया है और मैं बाहर आ गई। मैं आंसुओं की भाषा नहीं समझ पाई और वो आज भी मेरे लिए पहेली हैं। मैं घर में तीन भाई बहनों में सबसे छोटी थी और मुझे लगता है शायद अपने मम्मी पापा के सबसे करीब भी थी। अगले दिन फिर डॉक्टर आए और अपनी बात दोहरा कर चले गए कि कुछ नहीं कहा जा सकता। तीसरे दिन डॉक्टर ने कहा शायद 72 घंटे। उनकी हालत लगातार गिरती जा रही थी सोडियम घट रहा था ब्लड प्रेशर और पल्स भी।
मां मस्कुलर डिस्ट्रॉफी की पेशेंट थीं और लगभग 40 साल उन्होंने बिस्तर पर गुजारे थे पर मुस्कुराते हुए !! जो किसी अजूबे से कम नहीं था। इतनी खराब हालत और इतनी ज़िंदादिली !!! समझ नहीं आ रहा था यह उनकी मुक्ति का समय था या मृत्यु का?
जानती थी जिंदगी उनके लिए कभी फूलों की सेज तो ना थी पर जब वे मेरे साथ बड़ौदा (वड़ोदरा) में रहीं तो वे अक्सर कहा करती थीं कि वह उनकी जिंदगी का गोल्डन पीरियड था। उस दौरान ज़िंदगी ने मुझे बेहतरीन दोस्त दिए और बेहतरीन पड़ोसी भी। वे अक्सर मेरी उपस्थिति, अनुपस्थिति में आते और मां से घंटों बातें करते। हंसते खिलखिलाते जैसे वो उनकी हमउम्र हों। वे सभी मां की जिंदादिली पर चकित होते। और अब भी होते हैं।
उस वक्त मेरा एक ही सपना था कि काश हमारा यह गोल्डन पीरियड कभी खत्म ना हो। पर ऐसा थोड़े ही होता है। बुरा वक्त गुज़र जाता है तो अच्छे को भी गुजरना ही होता है। भाई की और मेरी शादी हो गई। यद्यपि मैंने विवाह पूर्व पति और मां से वादा लिया था कि वो हमारे साथ ही रहेंगी। पर शादी के समय मां ने अपने बचे हुए सभी गहने देकर उस गोल्डन पीरियड का कर्ज़ उतार दिया आखिर बेटी के घर का खाने के संस्कार नहीं थे ना उनके। मैं चाहती थी कि मैं उन्हें एक और लंबा गोल्डन पीरियड दे सकूं पर ऐसा नहीं हुआ।
72 घंटे बीत चुके थे। डॉक्टर ने कहा, "अब कभी भी।" मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उनकी जान कहां अटकी है। तभी अनायास मुझे याद आया उन्होंने मुझसे कई बार नेत्र दान करने के लिए जिक्र किया था परंतु मैंने पंजीकरण नहीं करवाया था। अतः मैंने नेत्रदान के लिए उस समय वहां उपस्थित डॉक्टर से बात की तो उन्होंने उसकी व्यवस्था करा दी। यह सब होते होते लगभग शाम के चार पांच बज गए होंगे।
उस समय मेरा अधिकतर समय अस्पताल में ही व्यतीत हो रहा था रात में भी मैं और भाई रुकते। उसी दिन रात को लगभग 12:00 बजे नर्स ने कहा बेड नंबर फलां के साथ कौन है पेशेंट का बीपी और पल्स गिर रहा है जल्दी आओ। मैं भाई को बुलाने के लिए फोन ढूंढने लगी परंतु हड़बड़ाहट में मेरे बैग में रखा फोन ढूंढकर बात करने में मुझे दो-तीन मिनट लग गए। फिर फोन करके मैं अंदर गई तब तक मॉनिटर की सारी रेखाएं सपाट हो चुकी थीं। आईबैंक वाले आकर कॉर्निया लेकर चले गए। घर पर बात करके यह तय हुआ कि मां के पार्थिव शरीर को सुबह घर ले जाया जाए ।अतः उनके पार्थिव शरीर को मोर्चरी में रखवा कर हम अस्पताल की बेंच पर आकर बैठ गए। जुलाई का महीना था उस समय बहुत शांत और शीतल बयार चल रही थी हवा के हर झोंके में मैं मां का स्पर्श महसूस कर पा रही थी।
उन्हें गए 10 वर्ष से अधिक हो गए। पर आज भी उनका आंखों से बात करने का वह अंतिम और संक्षिप्त वार्तालाप जब तब मेरी आंखों के सामने जीवंत हो उठता है।
वो लम्हे वो पल हम हरदम याद करेंगे,
जब तुम ही चले गए तो किस से फरियाद करेंगे ।
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