एक्जामिनेशन तीन : राजस्थान विश्वविद्यालय
सुमंत पंड्या वर्ष 1970 में राजनीतशास्त्र विभाग , राजस्थान विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद , लगभग चार दशक बनस्थली विद्यापीठ में राजनीतिशास्त्र विषय के अध्यापन के बाद अपने आवास गुलमोहर मे जीवन संगिनी मंजु पंड्या के साथ जयपुर में रहते हैं. सभी नए पुराने दोस्तों और अपनी असंख्य छात्राओं से भी संपर्क बनाए हुए हैं. फेसबुक और ब्लॉग की दुनियां इसमें मददगार होगी यह आशा रखते हैं .
बात बहुत छोटी सी है . सोचा था ये बताई जानी चाहिए या नहीं फिर लगा बताए देता हूं . सप्रसंग बताता हूं.
मैंने सुना है और कुछ कुछ याद है कि मुझे गुस्सा बहुत आता था, कुछ बड़ा हुआ तो बात बात पर अब गुस्सा नहीं भी आता था , पर ये जो मामला बता रहा हूं ये थोड़ा गुस्सा जताने का ही है . लोकेशन मैंने शीर्षक में ही लिख दी है - एक्जामिनेशन सेक्शन तीन , राजस्थान विश्वविद्यालय ,जयपुर .
राजस्थान विश्वविद्यालय .
राजस्थान का सबसे बड़ा और ऐतिहासिक विश्वविद्यालय जिसका फैलाव पूरे राजस्थान तक हुआ करता था और इसके परीक्षा प्रभाग का बहुत बड़ा कारोबार हुआ करता था . ये तब की बात है जब बनस्थली में मैं भी इसी विश्वविद्यालय के एक एफिलिएटेड कॉलेज में काम करने लगा था पर इस विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार दफ्तर में व्यक्तिशः जाने का तब तक कोई काम नहीं पड़ा था हालांकि मैं इसी परिसर से पढकर गया था .
मामला क्या था ?
अंग्रेजी विभाग , बनस्थली में वाजिद साब ( रशाद अब्दुल वाजिद साब ) तब वरिष्ठ प्राध्यापक हुआ करते थे और स्वाभाविक रूप से विश्वविद्यालय की परीक्षा के परीक्षक भी थे . उनके पास जांचने के लिए कापियों का बण्डल आया हुआ था और वो उसमें लगे हुए थे . ये बात थी अप्रेल के अंत और मई के आरम्भ की . मई के शुरु में छुट्टी शुरु होते ही मैं तो आदतन अपने घर जयपुर आ गया था . वाजिद साब की एकजामिनर्शिप से मेरा कोई वास्ता नहीं था
मैं कैसे जुड़ गया मामले से ?
एक दिन रात पड़े वाजिद साब जयपुर में मेरे घर आए और उन्होंने अपनी परिस्थिति बताई कि उनके अब्बू सख्त बीमार थे, जो कि वास्तव में नहीं ही रहे, और उन्हें बरेली जाना पड़ रहा था , वे कापियां जांचकर अवार्ड लिस्ट तो पहले भेज चुके थे और कापियों का बण्डल जयपुर के बनस्थली भवन में रख आए थेऔर मुझे कहने आए थे कि मैं बण्डल वहां चलकर उठा लेवूं और यूनिवर्सिटी के दफ्तर में जमा करवाने की जिम्मेदारी लेवूं .
मैं बोला ," आप रिक्शा से आए , इसी में बण्डल भी पटक लाते , एक चक्कर तो बचता ."
पर जिसके पिता मृत्यु शैय्या पर हों उसे इतना ध्यान कहां रहता है , उन्हें तो घर पहुंचने की जल्दी थी और वो मुझसे ये मदद मांगने आए थे वो भी विश्वविद्यालय के हित में .
खैर इस परिस्थिति में मैं फिर गया उनके साथ बनस्थली भवन और रिक्शा में पटक कर बण्डल अपने साथ घर ले आया . अब ये बण्डल मेरी जिम्मेवारी बन गया . उसी दिन पहली बार मैं बनस्थली भवन गया था और रामकृष्ण जी भाई साब से मिला था जो बनस्थली भवन के केयर टेकर हुआ करते थे .
अगले दिन यूनिवर्सिटी रजिस्ट्रार आफिस :
जैसा बण्डल मूझे मिला था फिर एक रिक्शा में डालकर मैं रजिस्ट्रार ऑफिस पहुंचा जहां ये जमा होना था . पता किया ये एक्जाम सेक्शन तीन में जमा होना था सो मय बंडल वहां पहुंचा . वहां एक कठिनाई आ गई कि बण्डल के साथ स्टेटमेंट का एनवलप और होवे तब ही ये बण्डल जमा हो सकता है अन्यथा नहीं . ऐसा कोई लिफाफा मेरे पास तो था नहीं . जिन्हें बण्डल ले लेना चाहिए था वो बाबू लोग बण्डल लेवें नहीं , जिन्हें लिफाफा बनाकर देना चाहिए था वो मौके पर मौजूद नहीं , मेरे पास उनसे संपर्क का कोई जरिया नहीं . कुल मिलाकर मेरे लिए अजीब मुसीबत कि क्या करूं इस बण्डल का . केवल इतनी राहत की बात थी कि बण्डल पर एक्जामिनर नंबर अलबत्ता लिखा हुआ था . इस कथा में इतना तो साफ है कि इस बण्डल को मैं पहले दिन से ढोते ढोते परेशान हो चुका था और अब इससे निजात चाहता था .
इस मामले में मैं असिस्टेंट रजिस्ट्रार साब से मिला तो उन्होंने भी वही नियम की बात कही हालांकि सारी बात मैं उन्हें समझा चुका था .
ए आर साब की बात सुनने के बाद मुझे तय करना था कि मेरा अगला कदम क्या हो, जिस रिक्शा से बण्डल ढो कर वहां तक लाया था वो मैं पहले ही लौटा चुका था और सोच रहा था कि इसे कैसे ले जावूं और कहां ले जावूं . तब मुझे सूझा और मैं ए आर साब से बोला :
" अगर आप इस बण्डल को जमा करने को तैयार ही नहीं हैं तो मैं भी अब इसे लेकर कहीं नहीं जाऊंगा , यहीं दफ्तर के बाहर रखकर इसे आग लगा दूंगा "
मेरा इतना कहना था कि ए आर साब को बात समझ आ गई और बोले:
" नहीं नहीं आप ऐसा मत कीजिए ... मैं करवाता हूं जमा."
उन्होंने मुझसे ये जरूर कहा कि इस बाबत मैं अपनी ओर से एक पत्र लिखकर दे देवूं साथ में और मैंने वहीँ उनकी सीट के सामने बैठकर वो पत्र लिख कर उनके सुपुर्द कर दिया .
बण्डल जमा हो गया और राजिट्रा्र दफ्तर ने उसकी एक औपचारिक रसीद भी इस बाबत दे दी . मेरा भी सिर दर्द मिटा .
बरसों पुरानी बात हो गई पर ये वो दिन था जब मैंने थोड़ा सा गुस्सा दिखाया था , परिस्थिति की मांग ही कुछ ऐसी थी .
Comments
Not surprised to read about your ultimatum to the AR. Such behaviour of officials is very common in our country. Wish many more of
us follow your foot steps.
Do you think that this type of dharna/anger would work today?
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