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From bicycles to scooters and cars: As witnessed by me. (जैसा मैंने देखा)
Anil Chandela was born in Ajmer in 1959. He graduated with a B.Sc. in Biology from Government College, Ajmer (GCA) in 1980.
Anil joined Central Excise and Customs in 1983 as Inspector and served at various places including the Indo-Pak Border and CSI Airport, Mumbai. He served in the Directorate General of Central Excise Intelligence (DGCEI), Headquatrters, Delhi for 11 years where he received the Presidential Award for Meritorious Service in 2016. He retired as an Assistant Commissioner, IRS in 2019.
Presently, Anil is staying at Jaipur, enjoying his days with a little angel, his four year old grandson.
साइकिल से बाइक होते हुए कार तक का सफ़र किसी के लिए भी तरक्की की दास्तान बयां करता है। तरक्की तो हुई ही है, होनी ही थी पहिया जो है सबमें, गति का, प्रगति का, एक रोमांच का प्रतीक। कहाँ, एक वो ज़माना था जब साइकिल भी लक्जरी होती थी ये बात हमारी पीढ़ी को अच्छे से पता है। मेरी यादों में, उस दौर में यानि की 1960s व early 70s तक मिडिल क्लास शादियों में बुश, मरफी या फिलिप्स रेडियो के साथ साइकिल भी दहेज में दी जाती थी और दूल्हे का परिवार खुश। तब साइकिल के तीन ब्राण्ड्स मशहूर थे हर्क्यूलिस, एटलस बाद में हीरो और AVON भी था। शहरों में साइकिल अमूमन सरकारी बाबुओं के पास होती थी, घर में सिर्फ़ एक।
Atlas Cycles, India.
और बाबू साब बडी शान से साइकिल निकाल कर अपनी पैंट की मोरियों, ख़ासकर दाईं मोरी तो अवश्य, को थौडा ऊपर सरकाते हुए जरा सा मोड या फोल्ड कर उसमें एक स्टील का क्लिपनुमा छल्ला, जिसका मुंह बीच से खुला होता था फंसा देते थे जिससे कि पैंट की मोरी न तो चैन में फंसे और ना ही चैन के ग्रीस से काली हो। अगर दफ़्तर के बडे बाबू हैं तो दफ्तर के बाहर साइकिल पर लगी घंटी बजा देते जिसे सुन चपरासी साइकिल लेने आ जाता। शाम को घर लौटते समय बच्चे इंतजार में रहते साइकिल पकड़ने को, दो कारणों से। एक, कि पिताजी थैले में क्या लाये हैं, दूसरा साइकिल हाथ लग जाये तो कुछ सवारी का चांस लग जाए।
साइकिल सीखने की दास्तान हमारी सबकी एक सी ही है। पहले कैंची चलाना सीखना वो भी आधी क्योंकि हमारी हाइट जो कम होती थी और साइकिल बड़ी। बायें हाथ से बाया हैन्डिल पकडना, बाया पाँव बाएं पैडल पर, दायें हाथ को सीट के पास से घुमा कर डन्डे को कसकर पकड़ना फिर धीरे-धीरे गति देकर दायें पाँव को डन्डे के नीचे से दूसरी ओर निकाल कर दायें पैडल पर। आधी कैंची पर बायाँ पैडल ऊपर तो दाया नीचे & vice versa खट् खट् की आवाज़ के साथ। कुछ दिनों के बाद पूरी कैंची यानि दोनों पैडल फुल सर्कल में घुमाना और शुरुआत में इससे जंघाओ में नस खिंच कर जो दर्द भी होता था आज भी सबको याद होगा। इस दौरान गिरना और घुटने फूटना तो अवश्यम्भावी। आत्मविश्वास बढने पर डंडे पर उछल उछल कर चलाना और उसके बाद सीट पर बैठकर और वो जो रोमांच और आनंद देता था वो शायद हवाई जहाज उड़ाने से कम न था।
साइकिल से ही घर का सामान, सब्जी, गाय का चारा (उन दिनों तकरीबन हर घर में कम से कम एक गाय होती ही थी) आदि सब काम। घर के ज्यादा मेम्बर कहीं जा रहे होते तो पड़ोस के उस घर से साइकिल मांगी जाती थी जिनसे संबंध मधुर होते। फ़िर भी वो ये ताकीद तो कर ही देते थे कि "हवा भरवा लेना, ध्यान से कहीं पंक्चर न हो जाए" इत्यादि। और हाँ याद पडता है कि उन दिनों म्यूनिस्पैलिटी का टोकन भी साइकिल पर लगता था जिसकी शायद कुछ फीस सालाना जमा होती होगी।
ज़वान हो कालेज जाते तो सीट के नीचे पीछे की ओर कालेज का टोकन लगता था तार से कसकर जिसकी सालाना फीस साइकिल स्टेन्ड के ठेकेदार को देनी होती थी। ये टोकन बड़ी शान से लगाया जाता था कि अब हम कालेज स्टूडेंट हैं। और उसकी पहचान बडे मायने रखती थी, मसलन हमारे अजमेर में DAV से ऊपर GCA ( Govt. College Ajm) का और सबसे ऊपर JLN ( JLN Medical College) का टोकन होता था। जवा होते दौर में हर युवा अपनी चाहत का पीछा उसी साइकिल से करता था। हर दिल की ख्वाहिश होती थी कि काश वो अपनी चाहत (जी हाँ सिर्फ़ चाहत क्योकि उस दौर में आज की तरह गर्लफ्रेंड्स की न तो इफरात होती थी और ना ही रोमियो की इतनी कूवत) को आगे डंडे पर बिठा कर लंबे घूमने जाएं।
जैसे कि उस दौर में बहुत से फिल्मी प्रेमगीत भी साइकिल पर ही फिल्माए जाते थे मसलन अनाड़ी फिल्म का "बन के पंछी गाएँ प्यार का तराना मिल जाए अगर आज कोई साथी मस्ताना---"। आदि। अगर अपनी बात करूं तो मैंने अपने ताऊजी की खरीदी हर्क्यूलिस साइकिल से स्कूल से लेकर कालेज पास आउट यानि 1980 तक का सफ़र तय किया। उसके हैन्डिल पर गुदा था "Hercules, Made in England, 1936 or 1939" जो उन्होंने कभी मात्र 35/- रू में खरीदी थी और मेरे तीसरे नंबर के भाई ने भी कालेज उसी से किया। शायद 1988-89 तक वो थी। यानि कितनी मजबूत रही होगी समझा जा सकता है।
Hercules Cycle, India.
फ़िर स्कूटर या बाइक का जमाना जब आया तो वह भी हरेक के बस में नहीं था। कालेज में गिनती की बाइक्स होती थीं और जिनके पास थीं तो लड़की पटाने के चांस भी उतने ही ज्यादा। स्कूटर सिर्फ़ लैम्ब्रेटा व वैस्पा (बाद को बजाज) होते थे जो कई सालों की लंबी बुकिंग के बाद मिलते थे। कहते हैं कि 1960s या 70s में कभी उदयपुर में शायद लैम्ब्रेटा की बुकिंग को उमड़ी भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस फायरिंग हो गयी थी।
Lambretta Scooters, India.
मोटरसाइकिल सिर्फ़ तीन, बुलेट (रायल-एन-फील्ड), जावा/यजदी और राजदूत। हालांकि कुछ पुरानी ब्रिटिश दौर की बाइक्स् भी चलन में थीं। जैसे कि हमारे पिताजी ने 1956-57 के आसपास 1100/- रू में काले रंग की भारी भरकम 5•5 HP की BSA ली थी जो 1948-50 के दौर में कोई ब्रिटिश सार्जेन्ट नसीराबाद छावनी से इंग्लैड जाते हुए बेच गया था। इसमें पीछे की ओर साइकिल जैसा स्टैण्ड होता था और बडी सी टंकी पर बैठ कर सवारी का आनंद आज भी याद है। खैर, बाइक के दौर ने सत्तर के दशक में जोर पकड़ा और तभी राजेश खन्ना ने हेमामालिनी को बुलेट पर पीछे बिठाकर फिल्म 'अंदाज' में गाना गाया था "जिंदगी एक सफ़र है सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना" जो बहुत हिट हुआ।
Rajesh Khanna on a Royal Enfield Bullet motorcycle in the song Zindagi Ek Safar Hai Suhana from the movie Andaz (1971).
अस्सी के दशक के मध्य में 100 CC की बाइक्स्, हीरो होण्डा, यामाहा, इण्ड सुजुकी आदि आई और आते ही छा गयीं। कारण, वज़न में हल्की थीं और एवरेज खूब देती थीं।
ऐसा नहीं था कि कारें नहीं होतीं थीं। थीं, लेकिन शुरूआत में सिर्फ़ शहर के कुछेक रईसों या राजे- रजवाड़ों में जो विदेशी होती थीं। हिन्दुस्तानी ब्रांड्स में एम्बेसडर और फिएट जो ऑफिसर क्लास मानी जाती थी और ज्यादातर डाक्टर्स, सीनियर इंजीनियर्स, कालेज प्रोफेसर्स, कुछेक सीनियर ब्यूरोक्र्ट्स के पास ही होती थी। एम्बेसडर का अपना एक अलग इतिहास और रुतबा था जो कि इस सदी के प्रथम दशक तक सत्ता की प्रतीक बनी रही।
जैसे हर चीज़ का अंत अवश्यम्भावी है वैसे ही इन दोनों कारों का सफ़र पूरा हुआ। जिसमें मुख्य भूमिका निभाई साल 1984 के आसपास आई मारूति-800 ने जो आई और आते ही छा गयी एक नये स्टेटस सिंबल के रूप में।
First-ever Maruti 800 sold in India.
फ़िर आयी 1991 में नरसिंहा राव व मनमोहन सिंह की जोड़ी ने अपने आर्थिक सुधारों से देश में एक नई क्रांति ला दी और कंज्यूमेरिज्म का नया दौर आया। यकायक मिडिल क्लास की परचेज पावर ने जोर मारा और देखते ही देखते सब कोई कारपति बनता चला गया।
अंत में, बच्चे थे तो साइकिल का सपना होता था। जवा होकर नौकरी में आए तो बाइक का सपना देखते थे। कार का तो कभी देखा ही नहीं था। इस तरक्की के दौरान हासिलात के नफे नुकसान की बात तो बहुत लंबी हो जाएगी। हा, इतना तो जरूर कहूँगा कि उस साइकिल के दौर की धीमी जिन्दगी में जो सुकून था वो अब इस तेज रफ्तार, भागम-भाग वाली जिन्दगी में कहीं नहीं। क्या आप भी इससे इत्तेफाक रखते हैं?
Comments
Changes in life
Thank you. Same as my experience.
Changes in life
Beautifully written.Even I am an evidence of the cycle era.
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