Three poems and some random thoughts

Author: 
Vivek Shrivastava

Vivek Shrivastava was born and brought up in Jaipur. He is a Science graduate but chose to do his masters in Economics. He has a Diploma in Functional Urdu from the National Council for Promotion of Urdu Language (NCPUL). At present he's in the third year of his law degree.

Vivek joined the Central Board of Excise & Customs and is presently posted as Superintendent GST. His expertise lies in enforcement of laws relating to money laundering and foreign exchange. He is a visiting faculty for Prevention of Money Laundering Act (PMLA) and Foreign Exchange Management Act (FEMA) at the Rajasthan Police Academy and the Central Detective Training Institute, Jaipur.

Vivek is a prolific writer of poems and stories, many of which have already been published in various journals. He’s associated with several poetic forums. He presented his story ‘Tyakta’ at World Hindi Secretariat at Mauritius which won the third prize of $100 and numerous other felicitations.

Vivek's flair for writing and speaking is well noted and he often anchors high-end functions. He currently resides in Jaipur with his parents, his wife, Rashi, and children, Rudransh and Shivansh.

  1. बुद्ध को पाती
  2. ना भूलें
  3. Parallaxes
  4. Random thoughts

बुद्ध को पाती

तुमने तो पा लिया बुद्धत्व
मुझे क्या मिला ?

राहुल ?

पिता होते हुए भी
पिता विहीन !

और

एक ज़िम्मेदारी मेरी ही
जिसे पालना था
हम दोनों को ।

महल के वैभव
पर तुम बिन !

लाए थे मुझे ब्याहकर
क्या नहीं था अधिकार मेरा
प्रजा के भी बराबर !

प्रजा के साथ होता अन्याय
तो वो कर सकती थी गुहार

पर

मैं तो पीड़ित हूँ
स्वयं राजा से ।

दोष है मेरा इतना

कि

मैं हूँ उसकी रानी
उसकी अंकशायनी ।

तब

मैं किससे करूं गुहार ?
कब तक रहूँ
बनकर महान व्यक्तित्व ?

तुम तो बन गये
मानवता की थाति,
दिखे कष्ट तुम्हें उसी के,

पर

मेरा क्या ?
मेरे अरमानों का क्या ?
मेरे विरह का क्या ?
मेरे प्रति तुम्हारे
कर्तव्यों का क्या ?

दोगे हिसाब कभी ?

मुझे भी तो मिला है
मानव जीवन एक बार ही
क्या चुकाओगेमेरा दंड कभी ?

तुम तो हो इतनी दूर,
हो सबके पास, सबके अंतर्मन मेंपर

हो करोड़ों प्रकाश वर्ष
दूर मुझसे

कि ना हो खंडित
तुम्हारा बुद्धत्व
मेरी छाया से ।

किंतु शायद
पता भी नहीं होगा तुम्हें

कि आज भी
भरती हूँ सिंदूर
तुम्हारे नाम का,

करती हूँ व्रत
करवा चौथ का
और
बनती हूँ पात्र
सभी के हास्य का ।महल में रखे
तुम्हारे वस्त्राभूषण,
विचलित करते हैं मेरा मन
रखती हूँ रोज़ उन्हें तहाकर

क्योंकि

उन्हीं में पाती हूँ मैं
तुम्हारा संग ।

नहीं जता रही मैं अहसान
पर मैं भी आखि़र हूँ इनसान

और

हिस्सा हूँ तुम्हारी ही प्रजा का ।

तुमने तो पा लिया वो
चाहिये था तुम्हें, जो

पर

मैंने कब चाहा था
मिला जो मुझे बिन चाहे ।

तुमने किया है अन्याय पूरा
नहीं कम होगा संताप मेरा
लिखने से किसी मैथिली के यशोधरामैं तो हूँ साधारण स्त्री
नहीं बनना चाहती त्यागिनी, तपस्विनी
पति होते हुए भी पतिविहीन ।

क्या होता यदि मैं
छोड़ जाती राहुल और तुम्हें
तुम्हारी ही भाँति सोते में ?

खड़ा है तुम्हारे बुद्धत्व का महल
आँसुओं पर मेरे
दोष नहीं देती तुम्हें

क्योंकि

तुम तो हो पहले से ही परमे’oर मेरे
पति परमे’oर !

और

अब तो मुझ से दूर हो कर
हो गये हो सबके भगवान
निस्संदेह मेरे भी ।

किंतु

कहता है विधान
हज़ार दोषी बच जाऐं

पर ना सज़ा पाये निर्दोष इनसान

पर
क्या नहीं मिली सज़ा
मुझे निर्दोष होने पर भी ?


ना भूलें

तुम भूलो, मैं याद दिलाऊँ
मैं भूलूँ, तुम याद दिलाओ

वो दिन, वो मंज़र, वो समां,
मिले थे जब हम पहली बार

चले थे जहाँ से साथ-साथ
खाकर क़समें,
निभाने की सदा साथ

अपना कर पूर्णतः,
एक दूसरे को,
करके एकाकार अस्तित्व को
दो से होकर 'एक'
हुए थे पूर्ण

वो क्षण, वो पल, वो समय
न भूलने पाये कभी

कभी आपाधापी में समय की
परेशानियों में जीवन की
झल्ला जाऊँ में यदि

तो

दिला कर याद, उन क्षणों की,
देखा था जब तुम्हें पहली बार
कर देना पुनः ऊर्जस्वित, मुझे

हाँ मैं भी करूँगा ऐसा ही
जीवन नहीं रहता,
सदा एकसा ही

आते हैं उतार चढ़ाव पड़ाव
भुला देते हैं जो जीवन का रसकर देते हैं परेशां, उद्वेलित, निराश भी
उन क्षणों में, उन क्षणों की
दिला कर याद तुम

या हम दोनों ही
एक दूसरे को
कर देंगे प्रफुल्लित, ऊर्जस्वित

हाँ तो फिर तय रहा

कि

यदि तुम भूलो तो मैं याद दिलाऊँ
मैं भूलूँ, तुम याद दिलाओ ।


Parallaxes

For sharp image,
Physics says,
there should be no Parallaxes.

To find a fine image,
object is to be set in such a way,
that there remain no Parallaxes.

We are having many Parallaxes,
in the form of desires diversion and mood swings.

We are in the lab of life
It looks, doing practical of vibes.

We can change outskirt, environment,
but inner zeal will have to be maintained,
without distraction and tension,
anger, fear, boredom, irritation.

Parallaxes are bound to happen.
Demon is committed to perform his job how high may be our nod.

Parallaxes have to be removed at all costs.

Breath fills at shore,
after crossing a long rove.

Which is the most problematic bar
in our winning the desired war ?

Parallaxes !!
Yes,
only and only Parallaxes.

Though, we owe it to our luck,
destiny for our success or unsuccess

But can we remove Parallaxes ?

Keep the aim at focal point and focus on that, without Parallaxes.

If we can,
then success, success and only success.


Random thoughts

1. मिलते हैं आप खुले दिल से, बिना बनावट, अदाकारी
सादगी ये आपके क़िरदार की, अदाकारी है ख़ुदा की

2. आपके होंसले के आगे झुकाते होंगे सिर फ़रिश्ते
हमने देखा है आपको तूफ़ानों से भिड़ते हुए

3. नहीं रुकना है मंज़िल आने तक मुझे
आएंगी कुछ चढ़ाइयाँ,कुछ उतराव, कुछ ठहराव
सभी के बीच चलते हुए

4. सोया था लिख कर बड़ी बड़ी आदर्श झाड़ती कविताएँ माँ बाप के लिये
झल्ला गया जब उठना पड़ा सुबह जल्दी, उन्हें सँभालने के लिए

5. रहते हैं ख़ुश वो ज़माने की महफ़िलों में उतार लेते हैं चेहरा, घुसते ही घर में
कितने भोले हैं वो या ख़ुदा नहीं समझते कि 'ग़ैर' नहीं होते 'अपने'

6. ले आती है थाली लगाकर खाना, बिना कहे, ज़बरदस्ती
माँ घर से बिना खाये नहीं आने देती

7. सो गए थे सबपहुँचा घर जब तक
बस जागती थी माँ बना कर मेरी पसंद का खाना

8. लोग कहते हैं हम अच्छा लिखते हैं
सलाम उनको है जो चोट गहरी देते हैं

9. बुलावा ए शिरक़त था, आला तबक़े की महफ़िल का
मजबूर थे पीने को, दस्तूर था महफ़िल का

10. हँसे तो होंगे खिलखिलाकर वो तन्हाई में बात पर मेरी
ज़ाहिरा में मुस्कुराते तो बदगुमानी होती

11. आदत सी पड़ गई थी कुछ उनसे राब्ते की
वजह न रही बाक़ी, पर आदत नहीं गई

12. वो शख़्स जो अभी-अभी महफ़िल से गया है, जब भी मिला भरी आँखों से तो मिला,
मन में क्या था ये पता ही नहीं चला बड़ा रूखा था, कभी गले नहीं मिला

13. करते रहे उम्मीद ए वफ़ा वो हमसे
लुटाते रहे सौग़ातें औरों पे

14. वो शख़्स जो गया है उठकर अभी-अभी महफ़िल से
या तो था पहुँचा हुआ रहनुमा या था नावाक़िफ़ सियासत के दाँव पेच से


Comments

बहुत खूब. बड़ी सरलता से..हृदय के उदगारों को कलम से उतार है।

Great efforts

Gud original thoughts ! Keep it up !!
Best wishes 👍

बहुत ख़ूब, लाजवाब

Best and inspiring

आपको बहुत बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं कि आपने इतनी सुंदर कविताएँ लिखी है। इनकी रचना करने के लिए आपको बहुत बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं।
भावनाओं को शब्दों में मोतियों की तरह पिरोया है आपने।
माँ सरस्वती की सेवा करते रहें, इसी आशीर्वाद के साथ।
आचार्य सत्यनारायण पाटोदिया

Very nice sir

Great going sir
Keep it up 👍👌

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