अप्रैल 'फूल' - यादों के झरोखे से

Author: 
Anil Chandela

Anil Chandela was born in Ajmer in 1959. He graduated with a B.Sc. in Biology from Government College, Ajmer (GCA) in 1980.

Anil joined Central Excise and Customs in 1983 as Inspector and served at various places including the Indo-Pak Border and CSI Airport, Mumbai. He served in the Directorate General of Central Excise Intelligence (DGCEI), Headquatrters, Delhi for 11 years where he received the Presidential Award for Meritorious Service in 2016. He retired as an Assistant Commissioner, IRS in 2019.

Presently, Anil is staying at Jaipur, enjoying his days with a little angel, his five year old grandson.

       आज 1 अप्रैल है और बचपन से इस दिन को जानते आए हैं *"अप्रैल फूल"।* कभी बने तो कभी किसी और को बनाने का प्रयास हम सब करते आए हैं।

 

       तो, ऐसी ही एक तारीख अप्रैल 1992 में भी आई थी जब मेरी तैनाती जयपुर के फॉरेन पोस्ट ऑफिस में थी। वहीं मेरे एक दूसरे साथी थे जो हम दोनों के कॉमन बास (Boss), एक अप्रेजर साहब के साथ चैम्बर शेयर किया करते थे। इत्तेफ़ाक से बास गवर्नमेंट कॉलेज अजमेर में 1976 की फ़र्स्ट ईयर क्लास के मेरे क्लास-फैलो थे, मैं फेल हो गया था और वे आगे बढ़ गये। कालांतर में 1992 में यूं दोबारा मिले। मुझे तब वहां आए यही कोई 9-10 महीने हुए थे जबकि वो साथी करीब दो साल से बास के साथ थे लिहाजा उन्हें थोड़ा बेहतर जानते थे। खैर, लंच ब्रेक में जब हम दोनों साथी मिलते और बतियाते, तो वे अक्सर बास की अति किफ़ायती वृत्ति के बारे में बात करते और कभी-कभार मुझे ये उलाहना भी देते कि _"अपने दोस्त से जरा कभी कुछ खर्चा करवा कर दिखा।"_ 

 

             मार्च के महीने में स्कूल्स में एडमिशन प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। साथी से पता चलता रहता था कि साहब अपनी बेटी, जो यही कोई 4-5 साल की रही होगी, का सोफिया में दाखिला कराने में व्यस्त हैं, यथा इम्तिहान दिलाने गये हैं, अब इंटरव्यू दिलाया है आदि, आदि।

 

              तो, बस यहीं मुझे एक खुराफात सूझी। और, प्लान के मुताबिक एक दिन पहले यानि 31 मार्च को सहायक समाहर्ता महोदया के स्टेनो को विश्वास में लेकर एक लैटर टाईप करवाया गया। सोफिया स्कूल की प्रशासनिक अधिकारी की तरफ से साहब को संबोधित। अजमेर से होने के नाते मुझे पता था कि मिशन स्कूल्स को नन्स संचालित करती हैं, तो ऐसे ही एक काल्पनिक नाम *' _सिस्टर ब्रगेंजा', या "एलिस"*_ (या ऐसा ही कुछ) लिख कर मैंने ही दस्तखत कर दिये। मजमून कुछ ऐसा बनाया कि, *_"We are pleased to inform you that your ward has been* *selected for admission to class KG. You are advised to contact undersigned within --- days to complete formalities and deposit fee, etc."* एक लिफाफे में डालकर उसे ऑथेन्टिक रूप देने के लिए नीचे ही स्थित शहर के मुख्य डाकघर (GPO) से उस पर भारतीय डाक के दो ठप्पे लगवा दिए, एक डिस्पैच का और दूसरा वहां रिसीट का। एक अप्रैल को जब साहब आदतन लंच पर घर गये तो लिफाफा उनकी टेबल पर रखवा दिया। वे शाम करीब चार साढे चार बजे लौटते थे। सो, उस दिन आते ही लिफाफा देखा, खोला, पढा और मुस्कराते हुए सामने बैठे मेरे साथी की ओर देखा और तुरंत उस चिट्ठी समेत पास में सहायक समाहर्ता (AC) महोदया के चैंबर में पहुँच गये। वहीं उन्होंने मेरे साथी को बुलाया और पांच-पांच सौ के तीन-चार नोट देकर कहा कि सबके लिए मिठाई, कचौडी और कोल्ड ड्रिंक्स मंगाई जाएं बिटिया का सोफिया में हो गया है। तो, सभी कस्टम्स और डाक विभाग के साथियों ने पहले तो दावत उडाई फ़िर रस्मी तौर पर बधाई भी दे दी। साहब फ़िर AC साहिबा से इजाज़त ले कर घर को निकल लिए खुशखबरी जल्द सुनाने को। उन दिनों AC महोदया का ये रूटीन था कि ऑफिस छोड़ने से पहले वे अंतिम चाय पर मुझे अवश्य बुलाती थीं और दिनभर के कार्यकलाप पर चर्चा करती थीं। उस दिन चाय पर उन्होंने मुझसे कहा, _"यू नो चंडेला ------- की बेटी का सोफिया में एडमिशन हो गया है, गुड।"_ मैंने थौडा मुस्कराते हुए कहा कि जी हां वो हमने ही करवाया है। _"ओ के, वैरी नाइस यू नो समवन अप देअर?"_ मैं अब खुद को रोक नहीं पाया और जोर से हंसा। वो कुछ विस्मित और कुछ प्रश्नवाचक भाव से मुझे देखने लगीं। फिर जब मैंने पूरा वाकया सुनाया तो वे हंस-हंस कर दोहरी हो गईं, आंखों में पानी भर आया। फ़िर बामुश्किल सहज हो कर बोली, _"दैट्स् ओ के, बट ओह गॉड आई एम वरीड अबाउट दैट पूअर चैप।" अब क्या कर सकते थे, जो होना था सो तो हो गया था। 

 

         पर, कहानी अभी बाक़ी है।

   

       अगले दिन सुबह ही साथी के पास ऑफिस में बास का फोन आ गया, _"लेट आऊंगा बेटी के स्कूल जाना है।"_ अब बारी थी हमारे सहमने की, शरारत तो हो गई थी लेकिन अब बास को फेस करना था। दोपहर बाद करीब तीन साढे तीन बजे वे आए और टेबल पर सर पकड़कर बैठ गये। फ़िर आहिस्ता आहिस्ता मद्धिम स्वर में साथी को घटनाक्रम बतलाया। उनके बताए अनुसार, जब बच्ची के साथ स्कूल पहुंचे और चिट्ठी दिखाई तो प्रशासन ने सबकुछ डिसऑन कर दिया। वो भौंचक लौट आए। मुझे बुलाया चैंबर में, _"यार कौन कर सकता है, दिमाग दौडाओ। हम कस्टम्स  अफसर बन अपने को ओवर स्मार्ट समझते हैं और यहाँ तो कोई हमें ही जबरदस्त बेवकूफ बना गया।"_ अब मैं कब तक अपनी हंसी रोकता, उसे दबाते हुए उन्हें जब पूरी बात बताई कि सर कल एक अप्रैल था और हमने शरारत की थी। पहले तो एकदम सन्नाटा छा गया, हम भी असहज हो चले, लेकिन फ़िर वे भी हंस पड़े। किंतु आगे उनकी बताई बीति शाम की बात और भी मार्मिक थी।

 

              हुआ यूं कि उन्होेंने घर जाकर जब खुशखबरी सुनाई तो सब खुश, होने भी थे। उनके बड़े भाई जो उन दिनों जयपुर में ही Addl. S. P. लगे हुए थे वो आए और अपनी भतीजी यानि साहब की बेटी को अपने साथ बाजार ले गये, उसे पसंद के कपड़े, खिलौने, चॉकलेट  आदि दिलवाए। शाम दोनों परिवारों ने बाहर बच्ची की सफलता को सेलिब्रेट करते हुए डिनर लिया।

 

          उनसे ये वृतांत सुनकर मन थौडा खिन्न भी हुआ, लेकिन अब क्या!!

 

                 तो, जनाब अप्रैल फूल के बहाने ये शरारत कर बैठे बास से खर्चा करवाने को। अब इतने सालों बाद जब कभी पीछे मुड़कर सोचता हूं तो कभी-कभी उस बच्ची के लिए अच्छा फील नहीं होता। लेकिन तब हम भी तो यही कोई 33 सालां शरारती बच्चे ही तो थे।  

 

    और फ़िर हमारा क्या कसूर था, बकौल किशोर दा, *"अप्रैल फूल बनाया ------, मेरा क्या कसूर जमाने का कसूर जिसने दस्तूर बनाया --।"*

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